ख़तरे में बचपन, महज़ नाम का बाल संरक्षण–विकास भारद्वाज’पाठक’,सह सम्पादक संवाद न्यूज, कुण्डेश्वर टाइम्स
भारत विविधताओं का देश है जहां पर हर वर्ग के लोग निवासरत हैं। वर्तमान समय में इसे युवा देश भी कहा जाने लगा है क्योंकि इस देश की कुल जनसंख्या में 60% युवावर्ग शामिल हैं। वहीं 2011 के आंकड़ों के अनुसार अवयस्क बच्चों की जनसंख्या कुल जनसंख्या की लगभग 15% है। इन्हीं अवयस्क बच्चों (0-18 वर्ष) को दुर्व्यवहार,हिंसा एवं शोषण से बचाने के लिए दिसम्बर 2005 में संसद में एक अधिनियम बना जिसे बाल संरक्षण अधिनियम 2005 के नाम से जाना जाता है और यह अधिनियम 2007 में लागू हो जाता है। इसके साथ ही राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग की स्थापना हो जाती है जिसका मुख्य उद्देश्य बाल मजदूरी पर पूर्णतः रोक लगाकर 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा देना था।
विधेयक के अनुच्छेद (23,28 व 29) बच्चों को अच्छी शिक्षा का अधिकार देते हैं और सबको जिम्मेदारी भी देता है कि उन्हें स्कूल जाने के लिए प्रेरित करें। अनुच्छेद (24) बच्चों को स्वस्थ रहने एवं भरपेट भोजन करने का अधिकार देता है। इसके साथ ही बच्चों को आराम एवं खेलकूद के लिए भी अनुच्छेद (31) अधिकार प्रदान करता है।अनुच्छेद (19) शोषण व खतरे से सुरक्षा का अधिकार देता है इसके साथ ही अनुच्छेद (02,28,37 व 39) हिंसा के विरुद्ध अधिकार देते हैं।यह सभी अधिकार संयुक्त राष्ट्र के बाल अधिकार पर 1989 में हुए सम्मेलन में स्वीकृत हुए जिस पर भारत ने 1992 में हस्ताक्षर किया। वहीं बाल श्रम से निपटने के लिए सरकार ने कई कदम उठाए हैं वर्ष 1979 में भारत ने बाल मजदूरी की समस्या और उससे निजात पाने के लिए गुरु पाद स्वामी समिति का गठन किया इसी समिति के सिफारिशों के आधार पर बाल मजदूरी प्रतिबंध एवं विनियमन अधिनियम को 1986 में लागू किया गया था।
बाल संरक्षण के नाम पर सरकारी प्रयासों और कानूनी नियमों की इक लम्बी फेहरिस्त है इसके बावजूद भी देश में बाल संरक्षण महज़ दिखावे की कड़ी बन चुका है।अगर बात की जाय बाल मजदूरी की तो अब तक इसके स्पष्ट आंकड़े सामने नहीं आए हैं परन्तु वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 5-14 आयु वर्ग के एक करोड़ से भी ज्यादा बच्चे बाल मजदूरी के भंवर में फंसे हुए हैं।भारत में मजदूरी करने वाले बच्चों में एक बड़ी संख्या ग्रामीण क्षेत्रों से ताल्लुक रखती है। वहीं बाल मजदूरी में उतरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश अव्वल दर्जे वाले राज्य हैं।वहीं मानवाधिकार संगठन के अनुमान के मुताबिक देश के एक करोड़ से ज्यादा अनाथ बच्चे सड़कों पर दिन बिता रहे हैं। इनमें से ज्यादातर बच्चे अपराधों, सामूहिक हिंसा और नशे की गिरफ्त में हैं।’सेव द चिल्ड्रन’ की वार्षिक रिपोर्ट 2019 के अनुसार भारत में बचपन अभी भी ख़तरे में है। वैश्विक स्तर पर असुरक्षित बचपन की सूची तैयार की गई हैं जिसमें भारत 116 पायदान पर होते हुए एशिया महाद्वीप के श्रीलंका, भूटान जैसे देशों से पीछे है।
अगर बचपन बचाना है तो इसके लिए समाज को आगे आकर अपनी जिम्मेदारी निभाना होगा।यह विषय जागरूक समाज को मंथन करने को मजबूर करता है। बच्चों की जिम्मेदारी समाज के हर नागरिक को लेनी होगी।यह नौनिहाल आने वाले समय में देश की कमान संभालने के काबिल इसके लिए अभी से सार्थक कदम उठाने होंगे। बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए तत्पर रहते हुए उचित स्वास्थ्य, शिक्षा,सुरक्षा, मनोरंजन, पोषण सहित अन्य आवश्यक प्रोत्साहन उपलब्ध कराने हेतु जन-जन को हुंकार भरनी होगी।