जिस दिन का इंतजार था वो आखिर आ ही गया। जनादेश सबके सामने है।
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एक अभूतपूर्व अनपेक्षित जनादेश, जिसकी शायद देश के किसी भी राजनीतिक दल ने कल्पना नहीं की होगी. मोदी जी अपने संपूर्ण रंगत को लिए हुए 300+ के बहुमत के साथ एक बार देश की राजनीति के शिखर पर बैठ गए हैं.
इस चुनाव में आपने हमने बहुत कुछ ऐसा देखा, सुना, महसूस किया जो अभी तक देश की राजनीति के 70 वर्षों के इतिहास में ना देखा गया, ना सुना गया, ना कल्पना की गई. कुल मिलाकर इस सब को वर्णित करने के लिए सिर्फ एक शब्द ही काफी है – अभूतपूर्व, अनप्रीसिडेंटेड!
देश की राजनीतिक परिस्थितियों के पिछले 70 साल में ऐसा चुनाव पहली बार लड़ा गया जो भिन्न राजनीतिक दलों के द्वारा एक-दूसरे के खिलाफ ना होकर एक व्यक्ति के खिलाफ लड़ा गया था. मोदी वर्सेस ऑल.
इस तरह इस देश की ‘पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी’ के इतिहास को ध्वस्त करते हुए पहली बार इस देश ने ‘प्रेसीडेंशियल डेमोक्रेसी’ की ओर बढ़ने का पहला कदम देखा. अब हम हिंदुस्तान में रहते हुए इस बात को अब सोच सकते हैं कि अमेरिका जैसे विशाल देश में सिर्फ दो व्यक्ति आपस में प्रेसिडेंट का चुनाव किस प्रकार लड़ते होंगे.
अगर सत्ताधारी पार्टी की ओर से सोचें तो आप मुझे बताइए कि पिछले 45 दिन के चुनाव अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी और अमित शाह के अलावा किसी और नेता का नाम आपने चुनाव प्रचार में सुना है? आपने किसी अन्य नेता के द्वारा जारी किए गए बयान देखे हैं? आपने किसी अन्य नेता की रैलियों के बारे में खबर सुनी है? नहीं – मुझे तो ऐसा याद नहीं आता.
अर्थ यह निकलता है कि पूरी भारतीय जनता पार्टी और उसकी राजनीति सिमटकर सिर्फ दो व्यक्तियों के चरित्र में समाहित हो गई थी और बाकी सारे अन्य फैक्टर गौण हो गए थे.
पहली बार हमने देखा कि देश की अन्य राजनीतिक पार्टियों का संपूर्ण एजेंडा सिर्फ मोदी विरोध पर आकर टिक गया था.
किसी अन्य राजनीतिक पार्टी के पास अपना कोई विचार नहीं था. अपने खुद के द्वारा उठाए गए, बनाए गए कोई मुद्दे नहीं थे. था तो ले – देकर सिर्फ मोदी विरोध.
पूरे चुनाव के सात चरणों में सारी राजनीतिक पार्टियां सिर्फ इतना करती रही कि जैसे लॉन टेनिस के खेल में एक्सपर्ट खिलाड़ी के द्वारा फेंके हुए शॉट को संभाल कर रिटर्न शॉट देने का प्रयास करते रहे और अपनी तरफ से कोई खेल नहीं खेले, वैसा ही वातावरण इस चुनाव में बना. मोदी जी चरण दर चरण नए नए मुद्दे उछालते रहे और बाकी सारी राजनीतिक पार्टियों और उनके समर्थक सिर्फ उन मुद्दों का जवाब देने में ही व्यस्त रहे. उन्हें कोई मौका ही नहीं मिला, या उनके थिंक टैंक इतने कमजोर हो गए थे कि कोई ऐसा नया मुद्दा उछाल सकें जो कि मोदी को प्रत्युत्तर देने पर मजबूर करे? ऐसा नहीं हुआ. फलस्वरुप सिर्फ यह हुआ कि तीर सिर्फ मोदी के चलते रहे और बाकी लोग बचने में लगे रहे.
खैर, परिणाम आपके सामने हैं. अन्य दलों के सभी राजनीतिक किले पूरी तरह से ध्वस्त हो चुके हैं. देश ‘मोदी – मोदी’ मय हो चुका है. ‘भारतीय जनता पार्टी’ और उसकी राजनीति, उसकी विचारधारा कहीं खो चुकी है. अब देश पर भारतीय जनता पार्टी या उसके सहयोगी दलों का शासन नहीं है. मोदी का शासन है.
मोदी को आप को स्वीकार कर लेना ही चाहिए. शायद अन्य दल तो इसे चुनाव से पहले ही स्वीकार कर चुके थे. अब जबकि पूरे देश में जीत के जश्न मनाए जा रहे हैं और विरोधी किसी कोने में बैठकर आंसू बहा रहे हैं, तब विचार करने का विषय यह है *इस प्रचंड बहुमत के साथ मोदी क्या करेंगे?*
यह सोचने का विषय इसलिए भी है कि बीजेपी का 2014 और 2019 का चुनावी वचन पत्र याने मेनिफेस्टो अगर आप अध्ययन करें तो आप इस चीज को बारीकी से समझ पाएंगे कि दरअसल दोनों में कोई मूलभूत अंतर नहीं है. जो वादे 2014 में किए गए थे वही वादे घुमा फिरा कर 2019 में रिपीट कर दिए गए हैं. अपनी तरफ से ना कोई नई बात जोड़ी गई, ना कोई पुरानी बात घटाई गई. इसलिए मेनिफेस्टो को पर चर्चा करना या उसका विश्लेषण करना तो मेरे विचार से सिर्फ समय खराब करना है.
मोदी जी अब दिल्ली के लिए भी नए नहीं हैं. 5 साल प्रधानमंत्री रह चुके हैं. प्रशासनिक जमावट वे कर ही चुके हैं. न तो नए प्रशासनिक सहयोगियों की भर्ती करना है, ना लोगों का फेरबदल करना है. न ही अब कार्यालय में नई जमावट या साजसज्जा करना है. सिर्फ वापस जाकर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना है और अपने राजकाज को जारी रखना है. इसलिए नई सरकारों को सामान्यतः दिया जाने वाला हनीमून पीरियड इस सरकार के लिए प्रासंगिक नहीं है.
अब तो देखने वाली बात सिर्फ यह है कि निवर्तमान मंत्रिमंडल, जिसमें से अधिकांश वजनदार मंत्री बगैर चुनाव जीते मंत्री बने थे, उनमें से कितनों को मोदी जी अपने साथ रखते हैं. किन का कद घटाते हैं या कद बढ़ाते हैं. या फिर नए मंत्रियों को अपने मंत्रिमंडल में शामिल करते हैं. क्योंकि जो भी हैं सिर्फ ‘मोदी’ हैं. बाकी तो सिर्फ परंपरा को आगे चलाए रखने के लिए एक दिखावे का मंत्रिमंडल तो बनाना ही होगा, जैसा पहले भी बनाया था. हर मंत्रालय के अंतिम निर्णय या तो मोदी जी करेंगे या अमित शाह करेंगे.
जैसा कि वर्तमान की परिस्थितियों से दिखाई दे रहा है पुराने मंत्रिमंडल में भी हमें याद नहीं आता कि कोई भी ऐसा मंत्री होगा जो अपने द्वारा खुद के किए हुए व्यक्तिगत फैसलों को रेखांकित कर सके. कुछ लगभग वैसी की वैसी ही स्थिति इस बार भी रहने वाली है. अब देखिए आगे आगे होता है क्या. चंद दिनों की बात है. सरकार को शपथ लेने दीजिए. नए मंत्रियों को शपथ लेने दीजिए.
कुल मिलाकर एक नागरिक और वोटर की निगाह से हमारी मंशा सिर्फ इतनी है कि मोदी जी चुनाव के अंत में अपनी बोली हुई बात “सबका साथ – सबका विकास” के अनुरूप कार्य करें और साथ ही जो तीसरा नारा उन्होंने जोड़ा है, “सबका विश्वास”, इसका मान रखें.
देश में बहुत सारी ज्वलंत समस्याएं आपका मुंह ताक रही हैं. शायद सिर्फ आप हल कर सकते हैं, क्योंकि बाकी सब को सिरे से ख़ारिज कर के देश ने आप ही को महानायक चुना है.
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, किसान समस्या और बदहाल अर्थव्यवस्था इन समस्याओं के कुछ चुनिंदा उदाहरण हैं. उम्मीद है कि मोदी जी इन सभी समस्याओं पर गंभीरता से विचार करेंगे और नागरिकों के मन में इस बार अपने कार्यों के द्वारा एक ऐसा विश्वास पैदा करेंगे कि सन 2024 के चुनाव में बगैर ‘हिन्दू-मुसलमान-नेहरु-गाय-मंदिर-गोडसे-पाकिस्तान’ के, खुद अपने बूते पर 350+ सीटें कमा सकें. बधाइयाँ और शुभकामनाएं.